और दर्दनाक लाया …डाकिया डाक लाया। अच्छे दिन की तरह ही खुशियों का कोई पयाम नही आया। डाकिया आज स्वयं ही एक डाक हो गए हैं। इनकी उनकी सबकी खबर देने वाले डाक बाबू अब शायद ही दिखेंगें? इन खबर देने वालों का कोई खबर लेने वाला नहीं। हमारे समाज-जीवन से देखते-देखते ये डाकिया कब अलविदा हो जाएंगे, यह कोई नही जानता।
हाय रे मेरे डाकिया! सरकारी डायन सबकुछ खाये जात है। पंजाब नेशनल बैंक, बीएसएनएल और एयरइंडिया के अवसान की खबर को छोटा करता यह भारत का डाक विभाग? 15000 करोड़ से ज्यादा का सालाना घाटा? 1.56 लाख डाकघर और इनके 4.33 लाख कर्मचारियों का भविष्य चिंता के घेरे में हैं। लगभग पांच हजार तीन सौ सैंतीस के घाटे में एयर इंडिया के कर्मचारी पहले से ही सड़क पर चप्पल पहन कर घूम रहे हैं। रोता हुआ एयर इंडिया के विमान का मोदी की जमीन पर अंतिम लैंडिंग हुई। मोदी ने कहा कि चप्पल पहनने वाले भी आकाश में उड़ सकते हैं? सारे जमीं आ गए हैं! गजब की विडंबना है कि आकाश में उड़ने वाले कर्मचारी भी स्वयं चप्पल पहने की स्थिति में आ गए हैं?
डाक बंगला हो या गोल डाकखाना हमारी मुस्कुराहट तो यहीं गोल-गोल घूमती रही है। मास्टर और पोस्टमास्टर हम सबको पहचानते थे। और हम उनको पहचानते थे। ये गांव के सम्मान और श्रृंगार थे। वे मास्टर तो गाँव से कबके विदा हो गए? अब स्कूल में वेतनभोगी कर्मचारी हैं? मास्टर के बाद अब बारी पोस्ट मास्टर की है। संदेशा और अंदेशा के बीच डाकिया के साइकिल की टुनटुनी बजती थी !
पिता, पुत्र, पत्नी, प्रेमिका और मां डाकिया की हांक सुन दरबाजे पर दौर पड़ती? हम पोस्टमास्टर में भी अपने ही परिजन अक्स देखते। किसी को खुशी तो किसी को गम मिलता? इंतज़ार में पसरी आंखों को किसी डाकिया को देख शकुन मिलता था। वह साइकिल की घंटी कम, दिल की घंटी ज्यादा थी। बाबूजी की जेब में बच्चों की तरह पोस्टकार्ड झूलता रहता था और फिर डाकिया से अन्य डाक का इंतज़ार होता? अनपढ़ भौजियां जब परदेश गए भईया के नाम मुझसे चिट्ठियां लिखवाती और अपनी विरह-वेदना को शब्द देने कहती और वह थोड़ी शर्माती और लजाती? कितना अहसान मानती थी वो भौजियां? और इसी मोहक अंदाज में डाकिया का भी इन्हें इंतज़ार रहता ? डाकिया के कंधे पर हमारी संवेदना अतिरिक्त बोझ था।
पत्र-लेखन और डाकघर ने हमारे साहित्य और समाज को ताकत दिया है। राष्ट्र की एकता और अखंडता का भी डाकघर सदियों तक उपादान बना रहा। 652 देसी रियासतों 635 रियासत को अपने से जोड़ा। 1908 के बाद 1920 के डाक विभाग के हड़ताल को कौन नहीं जानता है? 1942 के आन्दोलन में डाक विभाग ही अंग्रेजों के निशाने पर था? डाकविभाग की ऐतिहासिकता को कम कर देखना, इतिहास का अपमान करना ही होगा?
1776 में लार्ड क्लाइब ने भारत के कौआ कबूतर को सन्देश भेजने के काम से मुक्त किया और डाक विभाग की स्थापना की। वारेन हेस्टिंग ने 1774 में पहला डाकघर खोला। डाक विभाग को सरकारी मान्यता प्राप्त हुई 1854 में। विधिवत स्थापना-दिवस 1854 को ही माना गया। 2004 में तो भारत सरकार ने अपनी डाक विभाग का 150वां स्थापना-दिवस भी मनाया? पर दुर्भाग्य से मास्टर और पोस्टमास्टर हमेशा सरकार के रडार पर रहे।
मोदी ने संकेत दिया था रिफार्म ,परफार्म और ट्रांसफार्म का? घाटा! घाटा!! चिल्लाकर डाक व्यवस्था को निजी सेक्टर को सौंप देने की तैयारी? आज जो डाक से भेजने का खर्च 20 रूपये है वह खर्च कुरियर कम्पनी पर अब 100 रूपये का होगा? मोदीराज में न जाने कितने विभाग इसी हाल का शिकार हो रहा है। एचएएल को हमने देखा ही। राफेल पर जो रार है वह नीयत और नीति का ही मामला है। इस सरकार द्वारा राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय निगमों के हाथों देश को गिरबी रखने का खेल जारी है। हम तमाशबीन बने बैठे हैं। दलों के दलाल होने में हम गर्व महसूस कर रहे हैं ?
यह हम जानते हैं कि जितना मगजमारी वाला काम था, वे सब इनके ही जिम्मे आया। डाकिया डाक लाया, दाल लाया, कंडोम लाया। हमारे पोस्टमास्टर कंडोम भी बांटते नज़र आये। बैंक और बाजार सबकुछ? जूता से लेकर चंडी पाठ तक सारा काम पोस्टमास्टर का रहा? इन्होने बदतर जिन्दगी जी कर भी भारत के विकास को यहाँ तक पहुँचाया। तकनीक के विकास से धूप और वरसात से इनकी जिन्दगी बेहतर होती। इन्हें थोडा शुकून मिलता। पर इस निजाम का नया इंतजाम डाक विभाग को कह रहा कि मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है?
पूरे देश में असंतोष उभर रहा है। तिकड़म से लूटी गयी सत्ता को देख हम दीर्घकाल तक विस्मित नहीं रह सकते? रोटी और रोजगार पर जो यह गंभीर प्रहार है, बेहद असहनीय है। दलों की दलाली करने वाले और कंधे पर उनका झंडा ढ़ोने वालों से अपील है कि वे इन सवालों को अपना कन्धा दें और इस प्रतिकार को परिणाम तक पहुंचाएं।