काठ की हांडी दोबारा भी चढ़ती है, नरेंद्र मोदी की जीत ने यह सिद्ध कर दिया है। जनता का यह ताजा फैसला अँधेरे की तीर नहीं है। जनता ने अनजाने में नही वल्कि जानबूझकर बटन दबाया है। पिछले चुनाव (2014 लोकसभा चुनाव) में जाँचने परखने का कोई मामला नहीं था, पर यह वर्तमान जनादेश तो मोदी को देखने-सुनने के बाद ही सामने आया है।
परीक्षा अब मोदी की नहीं, जनता के फैसले की होनी है। वैसे हार के बहुत बहाने होते हैं। विपक्ष के बहानेवाजी को आज हम देख सुन भी रहे हैं। वैसे यह विपक्ष जीत भी जाता तो भी हमें खुशी नहीं होती, क्योंकि वैचारिक दिवालियेपन के बीच हुई वह जीत किसी काम का नहीं होती। इस विपक्ष को तो हारना ही चाहिए था। भाजपा की प्रचंड जीत से ज्यादा खुशी हमें विपक्ष की प्रचंड हार से मिल रही है। विपक्ष हारने के पूर्व भी बेईमान था, हारने के बाद भी किसी ईमानदार कारण की तलाश करने में अक्षम साबित हो रहा है।
इस निर्ल्लज विपक्ष का क्या कहना? मोदी प्लस की बात हम लगातार उठाते रहे। माइनस-मोदी की राजनीति से विपक्ष केवल साहित्य पैदा करेगा, इतिहास नहीं। विपक्ष हार के बाद भी समझ ही नहीं पा रहा है कि नयी चुनौतियाँ क्या है? इस विपक्ष को चुनौतियों की समझ होती तो लड़ने का नया औजार भी गढ़ पाता? युद्ध नया और औजार पुराना? भला इस स्थिति में विपक्ष की जीत की आशा कैसे की जा सकती है। मोदी ने कभी नक़ल नहीं किया वल्कि अकल लगाया। अपने किसी पुराने पड़े जंग खाए भोथरे तीर को उन्होंने तरकश से बाहर निकाल फेंका। परिणाम हमारे सामने है कि मोदी ने एक फूंक मारी कि विपक्ष हवा में उड़ गया।
अब विपक्ष को भी जिन्दा करने की जिम्मेवारी मोदी पर ही है। मोदी के पास अब अपना मनपसंद विपक्ष होगा। नीतीश जैसा बढ़िया सेकुलर भी तो अब इन्ही के पास है? मोदी, नीतीश कुमार को कब विपक्ष को मजबूत करने भेजेंगें, इसका हम सबको इंतज़ार है। ‘मैं ही हूँ आपका असली विपक्ष मोदीजी’, ‘मैं आपका ही अपना सेकुलर नेता हूं मोदी जी’ स्वीकार करें! स्वीकार करें!! हाल क्या है इन दलों का न पूछो सनम, इनका लुढकना गजब हो गया….
विपक्ष अभी तो श्मसान-वैराग्य में है। इन्हें अभी सत्ता की नश्वरता दिख रही है। अभी कांग्रेस दफ्तर राहुल गांधी का इस्तीफा-पॉलिटिक्स चल रहा है इससे बहुत कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। कुछ ही दिन बाद विपक्ष फिर अपने पुराने धंधे में लौट जायेंगें। इनके पास एक ही काम रह जाएगा गठबंधन करना और उसे तोड़ना। विपक्ष के पास बोलने के लिए भाषण और करने के लिए केवल विरोध है? फिर चुनाव आयेंगें और फिर वही मौत की मर्सिया पढने को विपक्ष अभिशप्त होगा। हो सकता है कल मोदी नहीं होंगें, पर जो होंगें वे मोदी प्लस होंगें। मोदी ने तो जनतंत्र का जायका ही बदल दिया है। विपक्ष को सोचना होगा कि इसके आगे क्या? हमारा मानना है कि सरकार से बड़ी जिम्मेवारी विपक्ष की है। मजबूत विपक्ष इस जनतंत्र के लिए जरुरी जरूरत है। पर इस जरुरी जरुरत को विपक्ष ने अपनी गैर- जिम्मेदाराना हरकत से ध्वस्त कर दिया।
मोदी की यह जीत कोई पहली प्रचंड जीत नहीं है। भारतीय संसदीय इतिहास में बहुत सारे बम्पर जीत हुए,पर वे बम्पर जीत किसी काम के साबित नहीं हुए। उस दौरान जितने काम हुए भी,तो उसे विकास नहीं कहा जा सकता है। उसे हम केवल सरकारी-सक्रियता कह सकते हैं। वह सरकारी रूटीन-वर्क के अलावा कुछ नहीं था। भाजपा के इस नरसिंहावतार पर कितना जश्न मनाया जाय? स्थिति जश्नातिरेक की है। देश की स्थिति ऐसी है मानो हम नाचने-गाने के लिए ही पैदा हुए हैं। मोदी समर्थक और कार्यकर्ताओं के पास इसके अलावे कोई काम भी नहीं है? ये नाचेंगें नहीं तो और क्या करेंगें? जबकि इन नाचने वाले कार्यकर्ताओं की भाजपा तो चुनाव में भी नहीं थी। लड़ाई तो मोदी और अन्य की थी? यह मोदी की जीत है, भाजपा और भाजपा के सिद्धांतों की नहीं। मोदी को भाजपा के डिफर और डफर होने से क्या मतलब?
भाजपा ‘पार्टी विथ डिफर’ ही थी तो क्या उखाड़ रही थी? भाजपा में डी. एन. बरुआ की कमी नहीं जो ‘मोदी इज इंडिया’ और ‘इंडिया इज मोदी’ की रट लगा रहा हैं। रट्टा मारने से राजनीति नहीं चलेगी। इस देश की जनता उतनी भोली नहीं है जितना हम समझते हैं। जनता अब किसी को दोष नहीं दे सकती। यह इसके स्वयं का चयन है। इसलिए सरकार के साथ जनता की भी भूमिका और भागीदारी कम नहीं होने वाली है। भारत का लोकतंत्र किसी अवसाद से न घिरे, इसके लिए हम सबको प्रयास करना होगा। मोदी की विफलता का इंतज़ार करना एक निषेधात्मक संकल्प होगा। हमारा समाज हित में समर्थन और विरोध जारी रहना चाहिए।
जो हताश और निराश हैं उनके लिए यही कहना है कि राजनीति का मतलब केवल चुनाव लड़ना नहीं होता है।
गांधी,लोहिया,जयप्रकाश,बाबा साहेब और भगत सिंह होने के लिए किसी सदन के सदस्य होने की जरुरत नहीं है। आज सांसद तो दिल्ली में केवल एक नेम-प्लेट भर है। इनका महत्व तो इनकी पार्टी में ही नहीं है और महत्व हो भी क्यों? अगर ये स्वयं पुरुषार्थी होते तो मोदी की इन्हें जरुरत ही क्या थी? यह तो जगजाहिर है कि कोई भी सांसद अपने बलबूते जीत कर नहीं आये हैं? ये मोदी के मुलाजिम के अलावे और क्या हैं? क्या इनकी हिम्मत है कि मोदी और शाह की किसी निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित कर दे? इस स्थिति में सांसद होने या न होने में कोई बड़ा अंतर नहीं है। पूरा देश एक वर्गीय-समूह से संचालित है और होता रहेगा। ये सांसद जीत कर भी इस जनतंत्र के हारे हुए खिलाड़ी हैं।
हमें तय करना चाहिए कि हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य क्या हो? किसी दल की हार मुद्दों की हार नहीं है। रोटी और रोजगार के प्रश्नों पर रखे भारी पत्थर को हटाना ही पड़ेगा। जन, जल,जंगल, जमीन और जानवर के सवाल अब भी जिन्दा हैं। इन्हें उत्तरित होने तक हमें सतत संघर्ष करना ही होगा। जबतक संज्ञा जिन्दा है, सर्वनाम जिन्दा है, उपनाम जिन्दा है, यथास्थितिवादी मूल्य और इनके मानक जिन्दा हैं, तबतक जातिवाद को ख़त्म होना नहीं माना जा सकता। ‘वोट हमारा और सरकार तुम्हारी’ जबतक चलती रहेगी,तबतक जाति के सवाल जिन्दा ही रहेंगें।
बाबासाहेब और विश्वनाथ की एक पैकेजिंग नहीं हो सकती है। यह सच है कि जिन मंदिरों और पुरोहितों ने जातिवाद को जिन्दा रखा उसके इर्दगिर्द पक्ष और विपक्ष का घूमते रहना एक सियासी-आखेट ही है। जनता नाहक ही इसका शिकार हो रही है। खेल जारी है। हम सुधिजन को समझदार और सावधान होने की जरुरत है। सामाजिक न्याय के सवाल मरे नहीं हैं? सदियों के भोगे हुए यथार्थ को शब्दों की लफ्फाजी से कम नहीं किया जा सकता। हम समता और समान अवसर के पक्षधर हैं, थोथी समरसता के नहीं।
तार्किक जीत की तार्किक परिणति हो, यह सरकार से अपेक्षा है। मोदी का मनसा- वाचा,कर्मना हो जाय, तो इससे बेहतर बात और क्या होगी? हमें किसी जीत और जश्न से नहीं घबराना चाहिए। हमने तो नादिरशाह को भी देखा है तो अमितशाह को भी देख लेंगें। देश हमारा भी है। इसे किसी की जागीर नहीं बनने देंगें। आईये! हम सब अपने-अपने हिस्से के हिन्दुस्तान को सजाएँ और संवारें।