दुनिया में जहाँ सभ्यताओं ने मरना सीखा, वहां-वहां नयी सभ्यता का जन्म हुआ, विकास और विश्वास की नयी संस्कृति भी बहाल हुई। वहां नए युग का विहान हुआ। यह सच है कि हर पीढी को मरना सीखना ही होगा। जो पीढी मरना नहीं सीखती, वह यूँ ही मर जाती है। आने वाली पीढी के लिए वह पीढी जड़ ही साबित होती है। पुराने पत्तों को तो झड़ना होगा। आखिर नए किसलय कैसे आयेंगे? बिना कली का बसंत और बिना महक की बगिया के क्या मायने?
पर, हरे पत्तों को आप जबरन न तोड़ें। इसके जख्म के रूप में दग्ध दाग उभर आते हैं। हमारी हस्ती के न मिटने की कथा, एक सांस्कृतिक व्यथा ही है। जड़ता और कितनी जड़ होगी? लाशों में जीवन की यह खोज हमारे लिए भारी पड़ गयी है। संस्कृति की चादर में लिपटी विकृति आज मुंह चिढाने में लगी है। हमें जो होना था, वह नहीं हो पाए। और असीम आत्ममुग्धता के हम शिकार हो गए। इस तबाही का मंजर देश में तो दिख ही रहा है और देश के दल में भी दिख रहा है।
अभी जो खबर भाजपा के आंगन से सरककर बाहर आ रही है वह है पूर्वजों और प्रतिबद्धताओं से पिंड छुड़ाने की। भाजपा की बेचैनी आडवाणी को मुक्त करने में बिल्कुल ही नहीं है। भाजपा को राम से मुक्त होना है और राम की संस्कृति से मुक्त होना है। सीता- कार्ड अब सिम-कार्ड है और इनके राम अब रैम में बदल गए हैं। भाजपा जानती है कि चन्दन घिसने से अब रघुवीर मिल भी सकते हैं, पर रायसीना-हिल्स नहीं मिल सकता। आडवाणी तो अकारण ही बदलती भाजपा की चपेट में आ गए हैं।
आडवाणी का उपयोग अभी बाकी था । और इनकी इस तरह उपेक्षापूर्ण विदाई होगी, यह अपेक्षा तो बिल्कुल ही नहीं थी। विदाई और धकियाने में बहुत अंतर है । आडवाणी के लिए यह दशक धकियाने वाला दशक ही साबित हुआ । संगठन और सत्ता में इनकी उपेक्षा का दौर इस सदी की शुरुआत में ही शुरू गया था । जिन्ना के मजार पर जो गए ,सबों को जिन्ना के जिन्न ने घेर लिया । देखते ही देखते उन सबका सियासी मैयार, एक मजार में तब्दील हो गया । कितने अलविदा हो गए देखते-देखते ? पहले तो गांधी के मजार पर जाने की मनाही थी तो जिन्ना तो दूर की बात है ।
इन्हें भूत होने में देर नहीं लगी । जिन्ना की रूहानी ताकत ऐसी है कि किसी के भी भविष्य को भूत हो जाने में देर नहीं होती । इसकी मजार पर अंधेर है पर देर नहीं । जसवंत को इस जिन्न ने किस तरह पछाड़ा यह सब जानते हैं । यह सब जानते हुए भी आडवाणी ने उधर कदम बढ़ाया । हुआ वही, जो राम ने रच रखा था । राम मंदिर की थका देने वाली यात्रा को अडवाणी हे राम ! कह कर समाप्त कर रहे हैं । राम, सिया के लिए हैं, सियासत के लिए नहीं । सिया राम मय को सब जग जानता है । सियासत में राम को घसीट कर जगजाहिर होने के खेल में आडवाणी आज इन्ज्योर हो गए हैं ।
काश ! आडवाणी गांधी के राम को समझ पाते । ये सांची राम की महिमा गा पाते ? उस अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता से भी परे उस परम सत्ता को जी पाते ? पर आडवाणी राम जैसी उस परम-सत्ता को पीएम-सत्ता बनाने में लग गए । उस तुच्छता के कारण ही प्रभु राम ने आडवाणी को पाइप लाइन से बाहर निकलने नहीं दिया । राम कहते रहे कि आडवाणी तुम्हे परम-पद चाहिए या पीएम पद ? संघ-संस्कार में पले-बढ़े आडवाणी जैसे स्वयंसेवक पीएम पद की ही इच्छा रख सकते हैं ?
स्वयंसेवक के लिए ‘भारत माता की जय’ का मतलब भारत सरकार होता है। ‘वन्दे मातरम और धंधे मातरम’ में इन्हें कोई अंतर ही नहीं दिखता है? आडवाणी ठहरे संघ के खांटी स्वयंसेवक? इन्हें परमपद से क्या लेना देना। इन्हें तो केवल पीएम पद चाहिए था।
भाजपा के भारत माता की अंतिम धरोहर मुरली मनोहर भी वोट हेतु, राम-सेतु बनाने लग गए । पर भाजपा के वानरों ने जोशी के सेतु बनने नहीं दिया । जोशी का जोश भी ठंढा हो गया । खंडित चेतना के कारण जोशी का रामनामी पत्थर तैरने के बजाय डूब गया । सत्ता का कोई सेतु नहीं बन सका । सोने की लंका पर जोशी कब्ज़ा नहीं कर सके ।
आडवाणी की सत्ता शतायु हो, की शुभकामना सबने दी होगी । निश्चित ही मोदी और शाह ने भी दी होगी ? पर यह क्या ? रामभरोसे वाली भाजपा ने आडवाणी को रामभरोसे क्यों बना दिया ? राम का नाम ही सत्य है, यह तो आडवाणी को पहले से ज्ञात था । जबरन सत्य को थोंपने की भाजपा को अभी क्या जरुरत थी ?
आडवाणी के तो मुंह में भी राम था और बगल में भी राम था। ये अगर बगल में छुरी रखते तो शायद इस तरह इनके छिलके न उतरते, न ही आँखों से कोई दर्द छलकता? वर्तमान नेतृत्व के मुंह में राम तो नहीं है, पर इनकी छुरी को देखने का काम आपका भी है।
अमित शाह अब अहमदाबाद का नेतृत्व करेंगे। आडवाणी के बदले अमित शाह यहाँ से उम्मीदवार हैं। अमित शाह देशी वैश्य है और आडवाणी सिंधी हैं। आडवाणी का पाइप लाइन से बाहर न निकलना, इनका सिंधी होना भी है। अगर आडवाणी वाजपेयी जैसा ब्राह्मण होते तो इन्हें भी सियासी शहादत का फायदा होता? खैर भाजपा संघ परिवार का एक सदस्य है। परिवार बुद्धि के खेल से निर्मित नहीं होता। परिवार तो भाव के तल पर बनता है और बढ़ता है। बुद्धि से बाजार बनता है, परिवार नहीं । क्या संघ-परिवार बाजार बन गया है? अगर नहीं तो इस परिवार में आडवाणी की ऐसी उपेक्षा क्यों? आखिर कौन इस परिवार का सदस्य बनेगा? और जो आएगा तो क्या यहाँ आडवाणी होने के लिए आएगा? मामला आडवाणी का नहीं एक अराजकता का है। संघ परिवार एक खानदानी परिवार बने, ताकि देश के अन्य परिवार भी संघ-परिवार को आदर्श बनाकर आगे बढ़ सके?