मैं चौकीदार नही, पत्रकार हूँ। और इस देश का स्थायी विपक्ष हूँ। निजाम कोई भी हो उसकी बदइंतज़ामी का मुखालफत करना मेरा कर्म और धर्म है। हमारा मानना है कि कोई भी सरकार कभी राष्ट्रवादी नही होती। सत्ता का तो अपना ही एक चरित्र होता है। दुनिया का इतिहास यह बताता है कि किसी सरकार से राष्ट्रवाद का जन्म नही होता है। इसका संबंध तो विपक्ष से है। पर विपक्ष वह नही जिसके पास बोलने के लिए केवल भाषण और करने के लिए केवल विरोध हो।
देश किन विचारों और अवधारणाओं पर आगे बढ़ेगा, यह दिशा तो विपक्ष की राजनीति ही तय करती है, पक्ष की नही। सरकार तो सरोकार समाप्त करती है। किसी सरोकारी सरकार के घटित होने की अपेक्षा करना एक मूढ़ता ही है। लोकतंत्र में विपक्ष होता ही है जन सरोकार के लिए किसी भी देश का जन-मन-गण जब जाग्रत होता है तब पक्ष हो या विपक्ष दिशाहीनता का शिकार नही होता। जाति-उपजाति, पंथ-उपपंथ में बंटा हुआ समाज पक्ष और विपक्ष को अपने नियंत्रण में नही रख सकता। खासकर वर्गीय हितों की चिंता में लिप्त दल इसी तरह के अंतर्विरोधों को सहलाते हैं और जिंदा रखते हैं। यह अंतर्विरोध एक मुकम्मल सांस्कृतिक पुनर्जागरण से ही संभव है। पर यह करे कौन ?
जिन अंतर्विरोधों की आंच पर सियासी रोटियां सिंक रही है, फिर उसका क्या होगा? यह सच है कि जबतक पहली रोटी जलेगी नही, तबतक दूसरी रोटी बनेगी नही। अफसोस है कि कोई भी दल आज अपनी इस पहली रोटी को जलाना नही चाहता। इस चाहत के साथ राजनीति करना किसी भी राष्ट्र या उसके राष्ट्रवाद के खिलाफ ही है। भाजपा भी जब विपक्ष में होती थी तो उनका कथित राष्ट्रवाद भी एक रंग और रौ में होता था। भाव न ही सही, पर भाषा में ही सही राष्ट्रवाद अवश्य दिखता था। भाजपा जब विपक्ष में थी तो हिंदी बोलती थी और सरकार में आते ही अंग्रेजी बोलने लगी। यह अंतर्विरोध तो एक प्रतीक भर है। यह हर दल के साथ लागू होता है। क्या भाजपा और क्या कांग्रेस?
सत्ता का भी तो एक रंग होता है ? सता का बदरंग होना ठीक नही है । वर्तमान नेतृत्व ने तो सत्ता के भी रंग में कीचड़ घोल दिया है । इसमें कोई दो राय नही कि सत्ता रंगीनी देती है, हमें रंगबाज बनाती है । सत्ता, शक्ति और संपत्ति का नायक, युगनायक नही हो सकता । ये कभी भी नए समाज के सर्जक नही होते । बकचोची से समाज का विश्वास नही जीता जा सकता है ।
भारत का विपक्ष आज कही नहीं है । यह निस्तेज और निष्प्राण है ।
विपक्ष पर प्रहार की क्या जरुरत है? विपक्ष अब स्वयं अस्तित्व की लडाई लड़ रहा है। अब तो इन्हें आरक्षण की जरुरत है। उद्दंड पक्ष और कमजोर विपक्ष इस लोक और लोकतंत्र के लिए घातक साबित होगा। चुनाव केवल सरकार को ही जन्म नहीं देता बल्कि विपक्ष को भी जन्म देता है? विपक्ष की स्थिति निर्दलीय जैसी है। निर्दलीयता अस्पृश्यता का पर्याय बन जाती है। तमाम लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर कब्ज़ा किया जा रहा है।
विदेशी आक्रान्ता भारत को फतह करने निकलते रहे और तबाही मचाते रहे। केवल सत्ता और संपत्ति की ही लूट नहीं होती थी बल्कि पुस्तकालय भी जलाए जाते थे। ज्ञान-विज्ञान के तमाम केंद्र ध्वस्त किये जाते रहे। आखिर आक्रान्ता को किताबों से क्या दुश्मनी थी? पर उन्होंने ऐसा ही किया? ज्ञान-विज्ञान के केंद्र से प्रतिरोध की कोई सोच पैदा नहीं हो जाय, इसकी बड़ी चिंता होती थी। बौद्धिकों और दार्शनिकों की भूमिका पर अंकुश लगाना एक बड़ा काम था।
क्रांति तो विचार से पैदा होती है । इसलिए सत्ता चाहती रही कि विचारकों को पनपने से रोका जाय? आज कोई भी तंत्र ऐसा नहीं जिसपर सरकार का कब्ज़ा नहीं हो चुका है। प्रेस और मीडिया भी सरकार स्वयं हो गयी? बाप बेटा पंच और बैल का दाम दो रुपया? अभी नमो टीवी भी शुरू हो गया। चैनल भी सरकार का और चुनाव भी सरकार का? अब सरकार के अपने विपक्ष होंगे? उसका नाम होगा सरकारी- विपक्ष? गोदी मीडिया, सरकारी मीडिया, सरकारी वकील और सरकारी न्याय सभी मत्स्य न्याय घरानेके ही शब्द हैं।
बीड़ी कंपनी का प्रचार और मोदी कम्पनी का प्रचार एक जैसा है। एक कंपनी बीड़ी बेच रही है और दूसरी व्यवस्था? सत्ता की मंडी में पोलिटिक्स प्रोडक्ट है और नेता एक प्रबंध निदेशक? और कार्यकर्त्ता, अभिकर्ता यानी एजेंट की तरह इस प्रोडक्ट को घूम-घूम कर बेच रहे हैं। अब दलाल और लाल के भेद मिट गए हैं ? दलाल-स्ट्रीट का बड़ा दलाल कौन नहीं होना चाह रहा है? बिना दलाल का देश आगे नहीं बढेगा। कौन कितना सुन्दर दलाल बने प्रयास तो यह होना चाहिए? मेरे पास न तो चौकीदार होने की योग्यता है, न ही दलाल होने की । बस मुझसे थोड़ी पत्रकारिता हो जाय और वह भी अ’पीत’ हो, यही शेष चाहत है।
धन की जरुरत जीवन के लिए है और यह जरुरत अपनी मिहनत से पूरा कर रहा हूँ। धन की जरुरत जब इच्छा होने लगेगी, तब मेरा दलाल-स्ट्रीट आ जाना बेहतर होगा? पार्लियामेंट-स्ट्रीट में खड़ा होकर देश की बोली लगाना यह संभव नहीं। पार्लियामेंट-स्ट्रीट को दलाल स्ट्रीट हरगिज नहीं बनाऊंगा। इस पार्लियामेंट-स्ट्रीट में खड़ा होकर देश की बोली लगाना उचित नहीं। यह राष्ट्र-विरोधी प्रकल्प है। झूठ और प्रचार से देश में पुरुषार्थ पैदा नहीं हो सकता। सत्य, निष्ठा, नीति, नीयत और प्रतिबद्धता से ही देश मजबूत होगा। प्रचार की अपनी सीमा है पर प्रचार ही पोलिटिक्स नहीं होता? लोकतंत्र के मूल्य और मानक बचे रहे. अभी आडवाणी ने भी नसीहत दी है कि असहमत समूह या विपक्ष को राष्ट्र विरोधी घोषित करना सही नहीं है।