इस चुनाव-युद्ध में चैनलों ने अपना-अपना मोर्चा सम्हाल लिया है। गोदी-मीडिया अब पूरी तौर पर मोदी-मीडिया में तब्दील हो गई है। वाहियात विषय और बहसों के बीच इनकी बकचोची, बकबासी जारी है। अब इन बहशी चैनलों का बहिष्कार इस जनतंत्र की एक जरुरी जरूरत बन गयी है। अपने सवालों से मुठभेड़ करने वाली जमात अब सीमा पर मुठभेड़ कर रही है? युद्ध का रास्ता हमारा रास्ता नही है। हम परिस्थितिजन्य वीरता के पक्षधर नही हो सकते?
आंतरिक अंतर्विरोधों की कोख से ही पाकिस्तान का जन्म हुआ था। आज भी हम उन अंतर्विरोधों को समाप्त नही कर पाए हैं। इसके लिए पक्ष और विपक्ष बराबर के गुनहगार हैं। सरकार तो सरकार में बने रहने के लिए बेचैन है और विपक्ष सरकार में जाने के लिए बेचैन है। इस दलबोध को देशबोध कह देना उचित नही होगा। इस दलीय चेतना को राष्ट्रीय-चेतना घोषित करने में मीडिया बड़ी गुनहगार है । हम इस गुनाहों की मीडिया को देखते रहने को अभिशप्त हैं।
इन चैनलों ने देश के तमाम बुनियादी सवालों को खारिज कर पूरे देश को एक तरह से आजिज कर रखा है। चैनलों का चुनाव ही ‘आम चुनाव’ हो गया है । एक नकली अवधारणा की निर्मिति हो रही है। सरकार विरोध के जितने स्वर हैं, वे कथित तौर कचड़े हो चुके हैं। यह स्वीकार लेने में कोई दिक्कत नही है कि यह भारत के विपक्ष की ही विफलता है । देश के नकारे और निठल्ले विपक्ष ने ही सरकार की स्वीकार्यता प्रदान की है । विपक्षी-दलदल में ही कमल खिल रहा है। कमल को खिलने के लिए भाजपा को जितना कीचड़ चाहिए, विपक्ष भाजपा का कीचड़ हो जाने को उन्मत्त है।
मोदी ने स्वच्छाग्रहियों के पैर क्या धोये, पूरा विपक्ष ही धूल गया। खासकर देश में चल रही दलित राजनीति को मोदी ने करीने से जबाव दिया है । दलित राजनीति के अंतर्विरोधों का भाजपा खूब फायदा उठा रही है। और यह करना भी चाहिए। सत्ता यूँ ही तो नहीं मिल जाती है। ऐसा करने कौन किसको रोक रखा है? मायावती ने तो दलित नेताओं का पांव तक नही फटकने दिया। सामने की कुर्सी पर नेता को बैठने की इजाजत नहीं दी है, तो आम कार्यकर्त्ता की क्या मुराद? मायावती भला किसी का पैर धोएगी? समर्थकों, सहयोगियों, कार्यकर्ताओं को हमेशा पांव की जूती बनाकर रखने वाली मायावती का चेहरा किसी सामन्त से कम नही रहा है। मोदी की यह मार मायावती के लिए स्वागतयोग्य है।
इतने दिनों की राजनीति के बाद भी मायावती दलित राजनीति का कोई नया नैरेटिव्स नहीं गढ़ सकी। काश! अपने पीछे की भीड़ को राजनीतिक तौर पर कभी प्रशिक्षण दे पाती ? बस वही घिसी-पिटी राजनीति और घिसा-पिटा इनका तरीका। बुद्धि के खेल में यह राजनीति कहाँ टिक पायेगी? हम मानते हैं कि हाशिये के जिन्दगी जीने वालों को अवसरवादी होना चाहिए। मुश्किल से आये अवसर का फायदा भी उठाना चाहिए। पर इसे नियति मानकर अज्ञानी बने रहना, बेवकूफी ही तो है। देश के दलित और दलों के दलित, अलग-अलग चुनौतियों से घिरे हैं। शिक्षण, संगठन और संघर्ष की बात अब बाबासाहेब की किताब में ही कैद होकर रह गयी है।
चुनाव सामने है । दलित नेतृत्व मुद्दाविहीन हो चुका है। देश,युद्ध के उन्माद में है। सारे दाव खेले जा रहे हैं । दोनों देश के मारने और मरने वाले श्रमण हैं। किसी भी तरह से मरना इन्हें ही है, चाहे ये समाज के बीच मरे या सीमा पर मरे। राज्य-व्यवस्था के लिए युद्ध एक छलावा है। युद्ध किसी भी राज्य-व्यवस्था के लिए अभाव को ढकने का यह एक उपाय मात्र है । खाए-पीये-अघाए वर्गों के लिए राष्ट्रवाद एक बौद्धिक-जुगाली ही है। अहंकार को सहलाने का शगल भर है । सत्ता बहेलिया है। यह किस रूप में सामने आ जायेगी, यह पहचानना जरुरी है।
नयी पीढी समझदार पीढी है। यह उच्च तकनीक से लैश है। इन्हें उन्माद से बचा लिया जाय तो बड़ा काम हो जाएगा। जड़ता के खिलाफ और नए समाज के सृजन में यह पीढी बड़ा काम कर सकती है। दुर्भाग्य से इन्हें भटकाने की हर प्रकार की साजिशें हो रही हैं । सत्ता को डर है कि यह पीढ़ी प्रश्न लेकर खड़ी हो गयी तो फिर क्या होगा? युद्ध का परिणाम जैसा भी हो, पर वह श्रमणों के हित में कदापि नहीं हो सकता। युद्ध की मार अंत में इन्हें ही झेलनी है। यह असावधान विपक्ष का दुष्परिणाम है । इनकी महत्वाकांक्षा अगर इसी तरह होड़ लेती रही तो इस चुनाव को अंतिम चुनाव ही माना जा सकता है।
1924 -25 में संघ स्थापना के सौ साल पूरे हो रहे हैं। इस सरकार को सरकार में बने रहना, संघ हित के लिए जरुरी है। संघ-हित के मायने और इसके आयाम को यहाँ दुहराने की जरुरत नहीं है। एक पालकी-पोलिटिक्स की वापसी की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। समाज के श्रमण, सवर्ण-सत्ता की पालकी ढोने को ही अभिशप्त होंगें, एक आत्महीन, निश्तेज और निष्प्राण होकर। वर्गीय-राजनीति के खेल को समझ लेना जरुरी है, अन्यथा वर्गीय-हित को साधने वाले किसी खेल को हम रोक नहीं पायेंगें। भाजपा को मायावती चाहिए, लालू और मुलायम चाहिए, रामदास और रामविलास चाहिए और इनका अंतर्विरोध चाहिए। इतने सुन्दर दुश्मन हो तो भाजपा फिर किसी दोस्त की क्या जरुरत है?
पिछड़ी जाति से जुड़े प्रधानमंत्री ने अपने ही पिछड़े हुए लोगों का पाँव धोया। कुम्भ में जाकर किसी कमंडलधारी बाबाओं का तो इन्होने पैर नहीं धोया? जो समाज में उंच नीच की गंदगी फैलाने का काम कर रहे हैं? समाज को साफ़ करने वाले सर्वोच्च हैं, ये मेहतर नहीं महानतर हैं, कम से कम यह यह सन्देश देने में मोदी अवश्य ही सफल रहे। संभव है कि भाजपा के चौबे, शुक्ल, तिवारी,झा मिश्र और पाण्डेय भी प्रयाग पहुँच कर स्वच्छाग्रहियों के पैर धोयें? तब तो उस चुल्लू भर पानी में मायावी राजनीति का डूबना तय है? तब पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गयी खेत ? जरुरत है देश के श्रमणों और बहुजनों को विश्वास दिलाने का, अपने होने का अहसास करने का और सत्ता में हिस्सेदारी और भागीदारी की समझदारी को साझा करने का।
मनीषा श्री की कलम से