यह राजनीति भी कम प्रपंची नहीं है। प्रपंच का दुसरा नाम ही तो राजनीति है। इस ठगिनी राजनीति में कोई न किसी का दोस्त होता है और न ही स्थायी दुश्मन। राजनीति में दुश्मनी की जगह कहां ! यह तो समय के साथ बदलती है और अपने हित को साधती है। सत्ता-सरकार संख्या बल से चलती है। जिसके पास सत्ता का अंक गणित होता है, गृह नक्षत्र भी उसके अनुसार विचरण करने लगता है। जिसके सिर राजयोग सवार होता है, परिस्थितिया उसके अनुकूल होती जाती है।
बानगी के तौर पर पिछले चुनावों का अवलोकन कर सकते हैं। मध्यप्रदेश में तो कांग्रेस ने बीजेपी को हराकर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने में सफलता पायी थी। कर्नाटक में तो कांग्रेस और जेडीएस की सरकार बनी थी। महाराष्ट्र में अघारी की सरकार चल रही थी। क्या हुआ? राजनीतिक प्रपंच में बीजेपी ने सबको मात दिया और सत्तासीन हो गई। मध्यप्रदेश की नौटंकी और महाराष्ट्र का अजूबा खेल इतिहास के पन्नो में दर्ज हो गया। भारतीय राजनीति बीजेपी का यह खेल सदा यादगार रहेगा। करीब आधा दर्जन राज्यों में बीजेपी को सरकार बनाने में प्रपंच का ही सहारा लेना पड़ा। बीजेपी ने खेल तो बंगाल ,बिहार और झारखंड में भी किया था। पिछले साल राजस्थान में भी गेम चलाया था। सफलता नहीं मिली। बीजेपी थोड़ी चूक गई वरना आज देश में विपक्ष की कही सरकार देखने को नहीं मिलती। बीजेपी का कांग्रेस मुक्त और विपक्ष मुक्त का नारा सफल दिखता लेकिन संभव नहीं हो सका।
बीते दिनों में दो बड़ी घटनाएं सामने आयी। पहली घटना तो ये हुई कि जमींदोज हो चुकी कांग्रेस राहुल गांधी की अगुवाई में भारत जोड़ो की यात्रा पर निकल गई। यह लम्बी यात्रा है। करीब 150 दिनों तक चलने वाली यात्रा। यह यात्रा 12 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों तक चलेगी। यानी कन्याकुमारी से कश्मीर तक की करीब साढ़े तीन हजार किलोमीटर की यात्रा। आजाद भारत की यह अनोखी यात्रा है जो कर तो रही कांग्रेस लेकिन यात्रियों के हाथ में तिरंगा है और सौ से ज्यादा अन्य संगठनों का सहयोग। यह कोई मामूली यात्रा नहीं है। इस यात्रा के राजनीतिक मायने भी है। जमींदोज हो चुकी कांग्रेस को जिन्दा करने की बात है तो देश के भीतर बीजेपी और संघ की राजनीति से बंट और डर चके समाज में एकता लाने लाने की सोंच है। इस यात्रा का अंतिम परिणाम क्या होगा यह तो बाद में पता चलेगा लेकिन इस यात्रा में बीजेपी और संघ को असहज कर दिया है। इस यात्रा ने देश में एकबार फिर से नयी लोकतान्त्रिक राजनीति पर बहस छेड़ दी है तो गोदी मीडिया को भी कठघरे में खड़ा मर दिया है।
इसी यात्रा के दौरान अमेरिका के टोरंटो शहर में एक नयी घटना घटी है। भारतीय गोदी मीडिया के गाल पर तमाचे लगाने वाली यह घटना बहुत कुछ कहती है। पत्रकार रवीश कुमार की पत्रकारिता पर विनय शुक्ल ने करीब डेढ़ घंटे की फिल्म बनाकर टोरंटो में पेश किया। इस फिल्म को देखने के लिए भारतीय कम विदेशी ज्यादा थे। देखने वालों में अधिकतर गोरे लोग तो थे ही ,बड़ी संख्या में मीडिया के लोग भी थे। सैकड़ों भारतीय जो अमेरिका में कारोबार और नौकरी करते हैं, वे भी शामिल थे। भारत की बदलती राजनीतिक ,सामाजिक और आर्थिक दशा पर गोदी मीडिया की साम्प्रदायिक पत्रकारिता के इस दौर में रवीश कुमार किस तरह से पत्रकारिता का दीप जलाकर सरकार और पांच किलो अनाज पर भक्ति में डूबे जनता जनार्दन की सच्चाई को आगे बढ़ाते हैं और सरकार का पोल खोलते रहते रहते हैं यह अपने आप में कोई साधारण बात नहीं। फिल्म का नाम ” नमस्कार —- मैं रवीश कुमार ” बहुत कुछ कहता है। टोरंटो के बाद यह फिल्म बहुत जल्द ही भारत में दिखाने की तैयारी है। रवीश कुमार मौन हैं लेकिन गोदी मीडिया में स्तब्धता छाई हुयी है। रवीश के इस आगाज को देखकर संभव है कि गोदी पत्रकारों का कुछ भ्रम टूट जाए लेकिन एक बात साफ़ हो चुकी है भारतीय पत्रकारिता पिछले एक दशक में जितनी बदनाम हुई है जितना इसका मान मर्दन हुआ है, आज से पहले कभी नहीं। विपक्ष को भी रवीश की पत्रकारिता से बल मिलता दिख रहा है।
दूसरी सबसे बड़ी घटना राजनीतिक उलट फेर की है। बीजेपी के बिहार सहयोगी घटक दल जदयू, बीजेपी से अलग हो गया। यह कोई आश्चर्य वाली घटना से कम नहीं। करीब 20 सालों से जदयू बीजेपी के संग थी। अचानक पलटी मारकर नीतीश कुमार फिर से उसी कुनबे के साथ सत्तासीन हो गए हैं जिसे कभी वे बदनाम करके निकले थे और बीजेपी के साथ फिर जाकर सत्ता की बागडोर सम्हाले थे. लेकिन जब जदयू को लगा कि महाराष्ट्र की तरह ही बीजेपी जदयू को भी पी जाने के फिराक में है तब नीतीश कुमार की तन्द्रा टूटी।
लेकिन इस बार नीतीश की तन्द्रा केवल बीजेपी के संभावित को लेकर ही नहीं टूटी थी। जिस तरीके से बीजेपी जदयू को ख़त्म करने की तैयारी कर रही थी वह नीतीश को जगा दिया है। अब नीतीश मोदी के खिलाफ हो चले हैं। शाह उनके निशाने पर हैं और बीजेपी नंबर एक दुश्मन। कुछ दिनों तक बिहार में अपने सहयोगियों से मंथन किया गया और पहुँच गए नीतीश दिल्ली। दिल्ली में तमाम विपक्षी दलों से मिले। रिश्तों को ताजा किया और ऐलान हुआ कि अगले लोक सभा चुनाव में बीजेपी को सामूहिक रूप से हराया जा सकता है। पूरे देश में नीतीश की यह हुंकार सुनाई पड़ी। गोदी मीडिया ने नीतीश को मौकापरस्त कहा लेकिन बीजेपी के खेल पर गोदी मीडिया ने कोई सवाल खड़ा नहीं किया। खबर सामने आयी कि देश के सभी मीडिया घराने मोदी के इशारों पर चलते हैं और गोदी पत्रकार घरानो के दास जैसे हैं। भला गुलाम लोग पत्रकारिता की क्या रक्षा करेंगे? सच तो ये है कि ये अपनी आका की भी रक्षा नहीं का सकते। वक्त बदलते ही सब कुछ बदल जाता है लेकिन गद्दारों की पहचान भी हो जाती है। आजादी के गद्दारों को आज भी गाली ही दी जाती है भले ही वे और उनके वंशज कितने भी धनवान और बाहुबली क्यों नहीं दिख रहे हों।
ये बात अलग है कि सीएम नीतीश कुमार की बिहार में भी राह आसान नहीं है। बीजेपी की तरफ से लगातार वार जारी है और जदयू के भीतर भी घमासान है। लेकिन नीतीश का ऐलान बड़ा है। विपक्ष नीतीश की राजनीति को समझ रहा है और संभावनाओं पर उम्मीद भी पाल रहा है। लेकिन नीतीश को एक ऐसे आदमी की जरूरत है जो उनकी ब्रांडिंग कर सके। पीके ने पिछले चुनाव में उनकी ब्रांडिंग की थी। जीत हाशिल हुई। पीके ने करीब आधा दर्जन से ज्यादा नेताओं की बैंडिंग की सबकी जीत हुई। पीके ने 2014 में मोदी की ब्रांडिंग की जीत हुई। लेकिन अब पिछले तीन साल से नीतीश पर हमला कर रहे हैं। बिहार की अस्मिता को लेकर सवाल कर रहे हैं। अपने सुराज संगठन से लोगों को जोड़कर नीतीश के लिए काँटा बो रहे हैं। नीतीश असहज हैं।
लेकिन ठगिनी राजनीती का चरित्र कहाँ ! नेता तो चरित्रहीन होते ही हैं। नेता दोहरे चरित्र के होते हैं। वक्त के साथ उनका पाला बदल जाता है। सत्ता की लड़ाई ऐसी ही तो होती है। फिर को नेता चरित्रवान होने का दम्भ भरता है तो मान लीजिये वह पक्का दगाबाज है। नेताओं की न कोई जाति होती है न धर्म। समय के मुताबिक उनकी जाति भी बदलती है और धर्म का चोला भी।
नीतीश को अपनी ब्रांडिंग के लिए एक ऐसे आदमी की जरूरत है जिसकी पहचान देश में हो और विपक्षी दलों के बीच भी। ऐसा तो आज एक ही आदमी है और नाम है पीके। लेकिन पीके तो इन दिनों नीतीश के खिलाफ खड़े हैं। लेकिन खबर है कि राजनीति की इस माया में पीके फिर से जकड गए हैं और अपनी अपनी पुराणी बेइज्जती को भी भूल गए हैं। जानकारी के मुताबिक बीते दिनों पवन वर्मा के जरिये नीतीश और पीके की मुलाकात हुई है। यह मुलाकात करीब दो घंटे तक हुई और सारे गीले शिकवे को ख़त्म किया गया।
बता दें के 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान ही पीके और पवन के वर्मा को पार्टी से हटाया गया था यह योन भी कहिये कि ये दोनों पार्टी से हैट गए थे। उस समय जदयू की बागडोर आरसीपी के पास थी और आरसीपी और पीके के बीच अपनी अहमियत को लेकर संघर्ष चलते थे। तब पीके जदयू में उपाध्यक्ष थे और नीतीश के ख़ास भी। लेकिन अब समय बदला गया है। आरसीपी जदयू से बाहर हैं और नीतीश पर हमलावर भी। ऐसे में आज नीतीश को पीके की खास जरूरत है। पवन वर्मा भी जदयू छोड़ तृणमूल के साथ चले गए थे। खबर ये भी है कि इस बदलते माहौल में वर्मा भी नीतीश के साथ जुड़ रहे हैं।
अब सवाल है कि पीके नीतीश के साथ क्या कुछ कर सकेंगे। यह बात और है कि पीके की पहुँच दक्षिण से लेकर उत्तरा के तमामं नेताओं के साथ है। उन्होंने भी विपक्षी एकता की कोशिश की थी। कांग्रेस में जाने को तैयार भी थे लेकिन संभव नहीं हो सका। कहा जा रहा है कि पीके ने ही राहुल गाँधी को पद यात्रा का मन्त्र दिया था जिसे अब कांग्रेस करती दिख रही है। संभव है कि आने वाले दिनों में बड़े स्तर पर देश में राजनीतिक तोड़फोड़ होगी और नीतीश के साथ पीके एक नयी भूमिका में नजर आएंगे।