नंदी बचाओ, नंदिनी बचाओ, देश बचाओ: दिल्ली में हमने कभी बैल नही देखा। रीगल सिनेमा में ‘किसान’ अवश्य देखा था । पूरी दिल्ली बेल पर सवार है । किसे बेल मिली और किसे नही मिली, यही देखते-सुनते रहते हैं । यहां हमें कहीं-कहीं गधे अवश्य ही नजर आ जाते हैं।
कुछ ऊंट भी समय-समय पर दिख जाते हैं । खासकर चुनावी मौसम में । ऊंट को देखते ही हम इनके करवट का कयास लगाने लग जाते हैं । मीडिआजीवी लोग भी चुनावी-सीजन में ऊंट को जबरदस्ती करवट लेने के लिए मजबूर करते दिखते हैं।
वाजपेयीजी हमारे बीच अब नही रहे । उनकी बैल वाली राजनीति उनके साथ ही विदा हो गई ।इंदिराजी के जमाने में पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोतरी के खिलाफ बैलगाड़ी से संसद गए थे। इन्ही के पार्टी के विजय गोयल भी अपने मुद्दों को लादकर संसद भवन की ओर कूच किये थे।
मानव विकास यात्रा में बैल ने सत्ता की गाड़ी ही नही, सभ्यता की गाड़ी को भी खींचा । बैल हमारे आवागमन का साधन बना । बैलों ने बैलगाड़ी ही नही, बल्कि रेलगाड़ी को भी खींचा । पहले मालगाड़ी को बैल से ही खींचा जाता था। भारत सरकार ने बैल के इस विराट इतिहास की प्रदर्शनी भी लगाई थी ।
प्रेमचंद की कथा को भी बैलों ने अपना कन्धा दिया । ‘हीरा और मोती’ को कौन भूल सकता है । ‘दो बैलों की आत्मकथा’ कहानी हमें झकझोड़ती है, रुला देती है। हमारा जीवन इससे अंतरसंबंध स्थापित करता है । हीरा और मोती से हमारा दर्द का रिश्ता कायम हो जाता है ।
गायों में कामधेनु और बैलों में बृषभ श्रेष्ठ है। बृषभ आज हमें राशिफल के अलावे कुछ नही देता । बैल, घर में पड़े माता-पिता जैसा व्यर्थ हो गया हैं । प्रेमचंद का यह ‘हीरा मोती’ इस संतप्त- संस्कृति का बोझ ही बन गया है ।
जबकि भारत ही नही, दुनिया की अन्य सुमेरियन और असीरिया जैसी सभ्यता में भी बैल बेजोड़ ही बने रहे ।
शिव की सवारी वे नंदी अब मंदिर के बाहर बदलती सभ्यता की आंच में तप रहे हैं। नंदी अब हमारे सांस्कृतिक-विमर्श में आडवाणी की तरह मार्गदर्शक मंडल के सदस्य हो गए हैं।
आप जानते ही हैं कि दादा साहेब फाल्के की फ़िल्म ‘लंका-दहन’ की कमाई को बैल से ढोया गया था । बासु भट्टाचार्या की अविस्मरणीय फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ को बैलगाड़ी ही आगे खींच ले जाती है । हीरामन के उन बैलों को इस गाने पर झूमते देख सकते हैं – सजन रे झूठ मत बोलो ख़ुदा के पास जाना है।
तीसरी कसम के वे दोनों बैल भी झूठ से डरते हैं। पर अब बैल जीवन की झूठ बना दिये गए हैं ?
अभी तो बैल ‘भाभी जी के घर पर ही हैं ‘। इस धारावाहिक में मनमोहन को उसकी मां बैल कहकर बुलाती है । मैं भी बचपन में बैल ही घोषित था । वह भी कोल्हू के बैल। केवल जुतते रहना और खाने को कुछ न मिलना। आज भी मैं बैल ही हूं ।
बैल का भी अपना ही समाजशास्त्र है । जो बैल जितना ही दिव्यांग और श्रम से दूर, वह उतना ही पूज्य। ये श्रमहीन बसहा बैल पालकी पर सवार रहते हैं । भोजन भी इन्हें सुदाना ही मिलता है और मेहनत करने वाले नंदी को पीठ पर पैना, मूंह में जाबी और नाद में सूखा भूसा। वाह! नंदी आखिर इस नाइंसाफी के बीच कितना दिन जीते ?
बैल आज भी अम्बुजा सीमेंट का विज्ञापन कर रहे हैं । नंदी परिवार को अम्बुजा की ओर से सम्मान मिलना चाहिये। इंडिया बुल्स, रेड बुल्स और शेयर मार्केट सभी अपने उठान के लिए नंदी देह का इश्तेमाल कर रहे हैं । इतनी बड़ी उपयोगिता के बावजूद बैल का इतिहास क्या है, बैल तो अब स्वयं एक इतिहास हो रहा है । इनका अस्तित्व ही नही तो अस्मिता की क्या?
कृष्णायन अजायब घर नही, मानवता का वाजिब घर है। इतिहास का यह कृष्णायन कोई एंटिक पीस भी नही है जो नंदी और कामधेनु का संरक्षण करे ।
उत्तर-संरचनावादी इसे इतिहास का अंत कह सकते हैं , पर है यह नए इतिहास का शिलान्यास ।
कृष्णायन से रोजी-रोटी की अपेक्षा अब रही नही । अब तो इनसे अस्तित्व बचाने की अपेक्षा जुड़ गई है । एक गोवर्धन और घटित हो रहा है ।
कृष्णायन के प्रकल्प और संकल्प। वाह अद्भुत ! इनकी इंद्रधनुषी विस्तार लेती योजना
जिसमे नंदी अपने रंग में है, एक रंगबाज की तरह । बिजनौर का यह सबलगढ़ का इलाका ।एकदम सुदूर जंगल ।
कृष्णायन का यह केंद्र एक सांस्कृतिक छावनी बन चुका है । इस बैरक में महाराज की नंदी- सेना मौजूद है । सांस्कृतिक-युद्ध की यह एक बड़ी तैयारी है। ये सभी नंदी गुड़-घी खाकर मुस्टंडे बने हुए हैं । महाराज के ये नंदी कितने अमोल हैं, कि कह नही सकते। बिना पैसा लिए ही ये नंदी किसी के भी जीवन की गाड़ी खींचने चले जाते हैं । महाराज के ये नंदी भी राजकुमार मिजाज में ही रहते हैं ।
महाराज के अनन्य स्वामी अच्युतानंद को एक दिन इन नंदियों से बात करते देखा । कुछ मुस्लिम भाई भी वहां खड़े थे। उन्हें खेती के लिए नंदी चाहिए था। अच्युतानंद नंदी से कहते हैं – जाओ यार! इनके भी जीवन की गाड़ी खींच दो। वे मुस्लिम किसान खुशी-खुशी स्वामी को नंदी का दाम देने लगे । स्वामी ने कहा – हम नंदी के सौदागर नही, परिवार हैं ।
क्या हिन्दू और क्या मुसलमान? महाराज के ये नंदी, अली और वली सभी के काम आ रहे हैं। नंदी अब परिवार की ओर लौट रहे हैं । कृष्णायन के संत नंदी को आवारगी से जोड़ना उचित नही मानते। देश के असंख्य नंदलाल ही जब बेरोजगार भटक रहे हों तो केवल नंदी की बात क्या करना? देश के नंदी और नंदलाल एक ही मोर्चे पर खड़े हैं ।
निविड़ जैसे साहित्यकार को ‘नंदी और नंदलाल’ जैसा यह नया शीर्षक चाहिए । ऐसा ही शीर्षक चाहिए न आपको? शिवपुत्र को शिव की सवारी की जो चिंता बढ़ी है वह सुखद है साहित्य के लिए भी और समाज के लिए भी ।
प्रेमचंद का ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ और कृष्णायन का ‘यथार्थोंमुख आदर्शवाद’ को समझकर हम ‘चौथी कसम’ भी खाने को तैयार हैं । हमारे भीतर के हीरामन को यह मुद्दा मोह लिया है। हम यानी मैं और निविड़जी प्रेमचंद के नही, महाराज के हीरा- मोती हो गए हैं । एक नए अंदाज और एक नए रंग रूप में। अभी तक कोई चमक नही दिखा पाया हूँ, यह अलग विषय है ।
हे हीरामन! दुनिया बनाने वाले हमारे लिए ही दुनिया बनाई है । इसे सुंदर बनाएं । तुम्हारी ‘चौथी कसम’ जैसी नई फिल्म को खींचने के लिए कृष्णायन की नंदी तैयार है । झूठ नही बोल रहा हूँ। मुझे भी गुरुदेव के पास जाना है।
जोर से बोलो ! नंदी बचाओ, नंदिनी बचाओ, देश बचाओ ।