किसी भी शुभ कार्य से पूर्व गणपति का पूजन भारतीय परम्परा की विशिष्टता है। गणपति को विघ्नेश, एकदन्त, गणपति, गजानन, गणनायक, गणाधिपति, गणाध्यक्ष तथा लम्बोदर इत्यादि अनेकानेक नामों से पूजा जाता है। गणेश जी का स्वरूप गणपति का आदर्श माना जाता है। यही वजह है कि लोक-चेतना में उनका यह स्वरूप इतना समाया हुआ है कि प्रत्येक मांगलिक कार्य तथा विधि-विधान उन्हीं के पावन स्मरण, आह्वान तथा पूजा-अर्चना से शुरू होता है।
ऋद्धि-सिद्धि के देव
ऋद्धि-सिद्धि के देव गणेशजी न केवल भारत में, अपितु तिब्बत, चीन, बर्मा, जापान, जावा तथा बाली इत्यादि तमाम देशों में भी विभिन्न रूपों में पूजे जाते हैं। यही नहीं, इन देशों में गणेशजी की प्रतिमाएं भी चप्पे-चप्पे पर देखने को मिल जायेंगी। सफलता समृद्धि की सहचरी है, इसलिए बिना किसी व्यवधान के कार्य संपन्न कराने हेतु स्वयमेव सफलता प्राप्ति की दृष्टि से ही गणेश लाभ व लक्ष्य के स्वामी होकर सर्व पूजनीय हो गये। भारतीय पुराणों में, गणेश जी की अनेकों कथाएं समाहित हैं बल्कि गणेश-पुराण तक भी देखने को मिलता है। गणेशजी की महिमा सीमाओं की संकीर्णता से परे है, इसलिए पश्चिमी देशों की प्राचीन संस्कृतियों में भी गणेश की अवधारणा विद्यमान है।
पश्चिम में रोमन देवता जेनस को गणपति के ही समकक्ष माना गया है, ऐसा माना जाता है कि जब भी इतालवी व रोमन इष्ट जेनस का नाम लेते थे। 18वीं शताब्दी के संस्कृत के प्रकांड विद्वान विलियम जोन्स ने जेनस व गणपति की पारम्परिक तुलना करते हुए माना है कि गणेश में जो विशेषताएं पाई गयी हैं वे सभी जेनस में भी हैं। यहां तक कि रोमन व संस्कृत शब्दों के उच्चारण में भी इतनी समानता है कि इन दोनों देवों में अंतर नहीं किया जा सकता।
भारत से बाहर विदेशों में बसने वाले भारतीयों ने भारतीय संस्कृति की जड़ों को काफी गहराई तक फैलाने का प्रयास किया और इन पर भारतीय देवताओं की पूजा उपासना का स्पष्ट प्रभाव था, जो आज भी है। विदेशों में प्रकाशित पुस्तक गणेश ए मोनोग्राफ आफ द एलीफेन्ट फेल्ड गाड में जो तथ्य उजागर किये गये हैं, उससे इस बात का स्पष्ट प्रमाण मिलता है कि विश्व के कई देशों में गणेश प्रतिमाएं बहुत पहले से पहुंच चुकी हैं और विदेशियों में भी गणेश के प्रति श्रद्धा और अटूट विश्वास रहा है।
विदेशों में पाई जाने वाली गणेशजी की प्रतिमाओं में इनके विभिन्न स्वरूप अलग-अलग देखे गये हैं। जावा में गणेश की मूर्तियों में वे पालथी मार कर बैठे दिखाए गये हैं, उनके दोनों पैर जमीन पर टिके हुए हैं व उनके तलुए आपस में मिले हुए हैं। हमारे देश में, गणेशजी की मूर्तियों में उनकी सूंड प्रायः बीच में दाहिनी या बाई ओर मुड़ी हुई है किन्तु विदेशों में वह पूर्णतया सीधी, सिरे पर मुड़ी हुई है।
जापान और चीन में
जापान में गणेश को कांतिगेन नाम से पुकारा जाता है। यहां पर बनी गणेशजी की मूर्तियों में दो या चार हाथ दिखाये गये हैं। सन् 804 में जब जापान का कोबो दाइशि धर्म की खोज करने हेतु चीन गया तो उसे वहां व्रजबोधि और अमोधवज नामक भारतीय आचार्य विद्वानों द्वारा मूल ग्रंथों का चीनी अनुवाद करने का मौका मिला तो चीन की मंत्र विद्या प्रणाली में गणेशजी की महिमा को भी वर्णित किया गया। सन् 720 में चीन की राजधानी लो-यांग पहुंचा अमोध्वज, जो भारतीय मूल का ब्राह्मण था जिसे चीन के कुआंग-फूं मंदिर में पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया था। बाद में अमोह वज्र से एक चीनी धर्म परायण व्यक्ति हुई-कुओ ने पहले दीक्षा ली, फिर उसने कोषो-दाइशि को दीक्षा दी जिसने वहां के विभिन्न मठों से संस्कृत की पांडुलिपियां एकत्र की व सन् 806 में जब वह जापान लौटा तो वज्र धातु के महत्वपूर्ण सूत्रों के साथ ही गणेशजी के चित्र भी साथ ले गया जिसे सुख-समृद्धि परब्रहम की जानमयी शक्ति के रूप में माना गया। जापान के कोयसान सन्तसुजी विहार में गणेश की चार चित्रावलियां रखी गयी हैं जिनमें युग्म गणेश, षड़भुज गणेश, चतुर्भुज गणेश तथा सुवर्ण गणेश प्रमुख हैं।
तिब्बत में गणेश पूजन
तिब्बत के हरेक मठ में भी गणेश पूजन की परम्परा काफी पुरानी है। यहां गणपति अधीक्षक के रूप में पूजे जाते हैं। नौवीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द में ही तिब्बत के अनेक स्थानों में गणेश पूजा का प्रचलन शुरू हो गया था। चीन के तुन-हु-आंग में एक पहाड़ी गुफा की दीवार पर गणेश की प्रतिमा उकेरी गयी है तो साथ ही सूर्य, चंद्र व कामदेव की मूर्तियां भी अंकित हैं। ये मूर्तियां सन् 644 में स्थापित की गयी थीं। गणेश की मूर्ति के नीचे चीनी भाषा में लिखा हुआ है कि ये हाथियों के अमानुष राजा है। चीन में भी गणपति कांतिगेन कहलाते हैं।
कम्बोडिया की प्राचीन राजधानी अंगकोखाट में जो मूर्तियों का खजाना मिला है, उसमें भी गणेश के विभिन्न रंग-रूप पाये गये हैं। वैसे यहां कांसे की मूर्तियों का प्रचलन है। स्याम देश जहां पर बसे भारतीयों ने वैदिक धर्म को कई सौ वर्ष पूर्व ही प्रचारित कर दिया था, के कारणवश यहां पनपी धार्मिक आस्था के फलस्वरूप यहां निर्मित की गयी गणेश की मूर्तियां अयूथियन शैली में दिखाई देती है। स्याम देश में वैदिक धर्म राजधर्म के रूप में प्रसिद्ध था जिसके कारण यहां आज भी धार्मिक अनुष्ठान वैदिक रीति से ही सम्पन्न होते हैं।
अमेरिका में तो लंबोदर गणेश की प्रतिमाएं बनायी जाती हैं। वैसे अमेरिका की खोज करने वाले कोलम्बस से पूर्व ही वहां सूर्य, चंद्र तथा गणेश की मूर्तियां पहुंच गयीं थी। विश्व के कई देश ऐसे भी हैं जहां खुदाई के दौरान भारतीय देवताओं की मूर्तियां मिली हैं लेकिन विशेषता यह रही कि इनमें गणेशजी हर जगह विद्यामान थे। ये मूर्तियां हजारों वर्ष पूर्व की होने का अनुमान लगाया गया है।
कुल मिलाकर विघ्नहरण विनायक, जहां समूचे विश्व में पूजा जा रहे हैं, वहीं भारत में भी विभिन्न प्रांतों में 10वीं शताब्दी की प्राचीन मूर्तियों में भी गणेशजी के अनेकानेक रूप मिले हैं जिन्हें प्रदेशों की स्थानीय बोली में विभिन्न नामों से पुकारा जाता है।
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